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भाषा का समाजशास्त्र / सुभाष शर्मा

Bhasha ka samajshashtra / Subhash Sharma

By: Contributor(s): Material type: TextTextLanguage: English Publication details: New Delhi: Bharatiya Gyanpeeth, 2018.Description: 276p.; 30 cm. HBISBN:
  • 9789387919044
DDC classification:
  • 491.438 SHA
Summary: भाषा का समाजशास्त्र - इस पुस्तक का उद्देश्य है कि कतिपय भाषा वैज्ञानिक सिद्धान्तों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाये। जैसे, भाषा की पारिस्थितिकी, भाषा का समाजशास्त्र, बहुभाषावाद आदि। इसके अलावा पैशाची भाषा पर वाद-विवाद-संवाद प्रस्तुत किया गया है जो संकेत करता है कि कैसे हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। 'जीवन की भाषा और भाषा के जीवन' नामक अध्ययन में बिहार में प्रचलित हिन्दी के रंग को बख़ूबी दिखाया गया है किन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि हिन्दी का यह स्वरूप 'मानक' हिन्दी से भले भिन्न है, फिर भी उसकी सोंधी गन्ध और सुस्वाद अन्य क्षेत्रों से अलग हटकर है। यह विविधता स्वस्थ एवं जीवन्त हिन्दी की भी परिचायक है। आजकल लोक भाषाएँ (मौखिक) अधोगति को प्राप्त हो रही हैं, इसलिए उनमें संग्रहीत देशज ज्ञान और लोक संस्कृति कलाओं का भी लोप हो रहा है जो राष्ट्र से लेकर समुदाय तक के लिए चिन्ता एवं चिन्तन का विषय है क्योंकि तमाम विकसित देश आर्थिक रूप से भले ज़्यादा समृद्ध हैं किन्तु भारत जैसे एशिया, लातिन, अमरीका और अफ्रीका के तमाम विकासशील देश प्रकृति, संस्कृति और भाषा के मामले में काफ़ी समृद्ध हैं। इसीलिए अन्य दो अध्यायों में भाषायी विविधता, प्राकृतिक विविधता और सांस्कृतिक विविधता से मानव जीवन के सशक्तीकरण का सवाल उठाया गया। चार अध्यायों में स्थानीय क्षेत्रीय भाषाओं की व्यथा-कथा, हिन्दी भाषा की दशा और दिशा, मॉरिशस में भोजपुरी हिन्दी, तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के ज़रूरी मुद्दों का सांगोपांग विवेचन किया गया है। अन्तिम अध्याय में भाषाओं के जीवन-मरण की चर्चा (गहनता और विस्तार से) की गयी है और ख़तरे में पड़ी भाषाओं को बचाने के उपायों की भी चर्चा की गयी है।
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Book Book Ranganathan Library Hindi 491.438 SHA (Browse shelf(Opens below)) Available 048891

भाषा का समाजशास्त्र - इस पुस्तक का उद्देश्य है कि कतिपय भाषा वैज्ञानिक सिद्धान्तों को सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाये। जैसे, भाषा की पारिस्थितिकी, भाषा का समाजशास्त्र, बहुभाषावाद आदि। इसके अलावा पैशाची भाषा पर वाद-विवाद-संवाद प्रस्तुत किया गया है जो संकेत करता है कि कैसे हमारी भाषाएँ लुप्त हो रही हैं। 'जीवन की भाषा और भाषा के जीवन' नामक अध्ययन में बिहार में प्रचलित हिन्दी के रंग को बख़ूबी दिखाया गया है किन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि हिन्दी का यह स्वरूप 'मानक' हिन्दी से भले भिन्न है, फिर भी उसकी सोंधी गन्ध और सुस्वाद अन्य क्षेत्रों से अलग हटकर है। यह विविधता स्वस्थ एवं जीवन्त हिन्दी की भी परिचायक है। आजकल लोक भाषाएँ (मौखिक) अधोगति को प्राप्त हो रही हैं, इसलिए उनमें संग्रहीत देशज ज्ञान और लोक संस्कृति कलाओं का भी लोप हो रहा है जो राष्ट्र से लेकर समुदाय तक के लिए चिन्ता एवं चिन्तन का विषय है क्योंकि तमाम विकसित देश आर्थिक रूप से भले ज़्यादा समृद्ध हैं किन्तु भारत जैसे एशिया, लातिन, अमरीका और अफ्रीका के तमाम विकासशील देश प्रकृति, संस्कृति और भाषा के मामले में काफ़ी समृद्ध हैं। इसीलिए अन्य दो अध्यायों में भाषायी विविधता, प्राकृतिक विविधता और सांस्कृतिक विविधता से मानव जीवन के सशक्तीकरण का सवाल उठाया गया। चार अध्यायों में स्थानीय क्षेत्रीय भाषाओं की व्यथा-कथा, हिन्दी भाषा की दशा और दिशा, मॉरिशस में भोजपुरी हिन्दी, तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी के ज़रूरी मुद्दों का सांगोपांग विवेचन किया गया है। अन्तिम अध्याय में भाषाओं के जीवन-मरण की चर्चा (गहनता और विस्तार से) की गयी है और ख़तरे में पड़ी भाषाओं को बचाने के उपायों की भी चर्चा की गयी है।

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