Daar se bichhudi /
Sobti, Krishna
Daar se bichhudi / Sobti, Krishna & सोबती, कृष्णा - New Delhi : Rajkamal Prakashan, 2014. - xiii, 123 p. ; 18 cm.
पाशो अभी किशोरी ही थी, जब उसकी माँ विधवा होकर भी शेखों की हवेली जा चढ़ी । ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए 'कुलबोरनी' नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी । नानी ने भी एक दिन कहा ही था-' 'सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव जिन्दगानी धूल में मिला देगा !' ' लेकिन थिरकने-जैसा तो पाशो की जिन्दगी में कुछ था ही नहीं, सिवा इसके कि वह माँ की एक झलक देखने को छटपटाती और इसी के चलते शेखों की हवेलियों की ओर निकल जाती । यही जुर्म था उसका । माँ ही जब विधर्मी बैरियों के घर जा बैठी तो बेटी का क्या भरोसा! जहर दे देना चाहिए कुलच्छनी को, या फिर दरिया में डुबो देना चाहिए!. ..ऐसे ही खतरे को भाँपकर एक रात माँ के चल में जा छुपी पाशो, लेकिन शीघ्र ही उसका वह शारण्य भी छूट गया, और फिर तो अपनी डार से बिछुड़ी एक लड़की के लिए हर ठौर-ठिकाना त्रासद ही बना रहा । इसके बावजूद प्रख्यात कथा-लेखिका कृष्णा सोबती ने अपनी इस कथाकृति में जिस लाड़ से पाशो-जैसे चरित्र की रचना की है, और जिस तरह स्त्री-जीवन के समक्ष जन्म से ही मौजूद खतरों और उसकी विडम्बनाओं को रेखांकित किया है, आकस्मिक नहीं कि उसका एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है; और वह है सिक्स और अंग्रेज सेनाओं के बीच 849 में हुआ अन्तिम घमासान! पाशो उसमें शामिल नहीं थी, लेकिन वह उसकी जिन्दगी में अनिवार्य रूप से शामिल था । एक लड़ाई थी, जिसे उसने लगातार अपने भीतर और बाहर लड़ा, और जिसके लिए कोई भी समयान्तराल कोई मायने नहीं रखता । यही कारण है कि पाशो यहाँ अपनी धरती और संस्कृति, दोनों का प्रतिरूप बन गई है । संक्षेप में कहा जाए तो कृष्णा सोबती की यह जीवन्त रचना नारी-मन की करुण-कोमल भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और उसके हृदय को मथते आवेग-आलोड़न का मर्मस्पर्शी साक्ष्य है । साथ ही इसके भाषा-शिल्प में जो लोकलय और सादगी है, उसमें पंजाब के गन्दुमी वैभव और उसके अदृश्य उजाड़, दोनों को ही उजागर करने की अपूर्व क्षमता है ।
8126702990
Hindi literature
Hindi fiction
891.433 / SOB
Daar se bichhudi / Sobti, Krishna & सोबती, कृष्णा - New Delhi : Rajkamal Prakashan, 2014. - xiii, 123 p. ; 18 cm.
पाशो अभी किशोरी ही थी, जब उसकी माँ विधवा होकर भी शेखों की हवेली जा चढ़ी । ऐसे में माँ ही उसके मामुओं के लिए 'कुलबोरनी' नहीं हो गई, वह भी सन्देहास्पद हो उठी । नानी ने भी एक दिन कहा ही था-' 'सँभलकर री, एक बार का थिरका पाँव जिन्दगानी धूल में मिला देगा !' ' लेकिन थिरकने-जैसा तो पाशो की जिन्दगी में कुछ था ही नहीं, सिवा इसके कि वह माँ की एक झलक देखने को छटपटाती और इसी के चलते शेखों की हवेलियों की ओर निकल जाती । यही जुर्म था उसका । माँ ही जब विधर्मी बैरियों के घर जा बैठी तो बेटी का क्या भरोसा! जहर दे देना चाहिए कुलच्छनी को, या फिर दरिया में डुबो देना चाहिए!. ..ऐसे ही खतरे को भाँपकर एक रात माँ के चल में जा छुपी पाशो, लेकिन शीघ्र ही उसका वह शारण्य भी छूट गया, और फिर तो अपनी डार से बिछुड़ी एक लड़की के लिए हर ठौर-ठिकाना त्रासद ही बना रहा । इसके बावजूद प्रख्यात कथा-लेखिका कृष्णा सोबती ने अपनी इस कथाकृति में जिस लाड़ से पाशो-जैसे चरित्र की रचना की है, और जिस तरह स्त्री-जीवन के समक्ष जन्म से ही मौजूद खतरों और उसकी विडम्बनाओं को रेखांकित किया है, आकस्मिक नहीं कि उसका एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य भी है; और वह है सिक्स और अंग्रेज सेनाओं के बीच 849 में हुआ अन्तिम घमासान! पाशो उसमें शामिल नहीं थी, लेकिन वह उसकी जिन्दगी में अनिवार्य रूप से शामिल था । एक लड़ाई थी, जिसे उसने लगातार अपने भीतर और बाहर लड़ा, और जिसके लिए कोई भी समयान्तराल कोई मायने नहीं रखता । यही कारण है कि पाशो यहाँ अपनी धरती और संस्कृति, दोनों का प्रतिरूप बन गई है । संक्षेप में कहा जाए तो कृष्णा सोबती की यह जीवन्त रचना नारी-मन की करुण-कोमल भावनाओं, आशा-आकांक्षाओं और उसके हृदय को मथते आवेग-आलोड़न का मर्मस्पर्शी साक्ष्य है । साथ ही इसके भाषा-शिल्प में जो लोकलय और सादगी है, उसमें पंजाब के गन्दुमी वैभव और उसके अदृश्य उजाड़, दोनों को ही उजागर करने की अपूर्व क्षमता है ।
8126702990
Hindi literature
Hindi fiction
891.433 / SOB